बंद है सिमसिम - 1 Ranjana Jaiswal द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बंद है सिमसिम - 1

भूमिका

इस संसार में बहुत -कुछ ऐसा देखने -सुनने और अनुभव करने को मिल जाता है जिस पर पढ़ा -लिखा ,वैज्ञानिक मन विश्वास नहीं कर पाता पर उसको अस्वीकार करना भी मुश्किल होता है।

आइए आपको ऐसी ही रहस्य -रोमांच से भरी कहानियों से परिचित कराती हूँ।

पहला भाग--औघड़ बाबा की रूह

बचपन की बात है। मेरे घर का ऊपरी माला बन रहा था।राज मिस्त्री के साथ कई मजदूर भी काम कर रहे थे।मजदूरों में एक नचनिया भी था।पहले गाँव- कस्बों में नाचने-गाने का काम लड़के करते थे।वे लड़कियों की तरह कपड़े पहनकर और उनकी तरह सज-धजकर फिल्मी गानों पर नाचते -गाते थे।हर मेले- ठेले,शादी -ब्याह,नाटक -नौटँगी,पूजा-उत्सव में वे अवसर के अनुकूल गानों पर नाचते थे।जनता में उनकी बड़ी मांग रहती थी।वे खूब लोकप्रिय भी होते थे।पर जबसे लड़कियाँ उनके क्षेत्र में आईं उनकी मांग कम होते -होते लगभग खत्म ही हो गई।सारे नचनियां बेरोजगार हो गए।


मेरे घर काम करने वाला नचनियां भी पहले नाचने -गाने का काम करता था,अब मजदूरी करने के लिए विवश था।उसकी आवाज बड़ी सुरीली थी।अक्सर काम करने के साथ वह गाता भी जाता था।


उस दिन माँ के कहने से मैं ऊपर माले पर गई तो देखा कि सारे मजदूर तो काम कर रहे हैं पर वह नचनियां एक खटोले पर लेटा हुआ है।मैंने नीचे जाकर माँ को यह बता दी।माँ गुस्से में ऊपर आई और उस पर चीखने -चिल्लाने लगी पर वह टस से मस नहीं हुआ।जब कई मजदूरों ने उसका हाथ पकड़कर उसे खड़ा करना चाहा तो वह धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा।फिर ऐसा दृश्य उपस्थित हुआ कि सबके रोंगटें खड़े हो गए।ऐसा लगा कि उस नचनियां को कोई अदृश्य हाथ हवा में उछालता है और फिर जमीन पर फेंक देता है। नचनियाँ के पूरे शरीर पर चोट ही चोट नज़र आ रही थी ।पूरा शरीर धूल -धूसरित हो गया था।दस- दस मजदूर भी उसे सम्भाल नहीं पा रहे थे। दुबले -पतले नचनियाँ में जाने कहाँ से इतनी ताकत आ गई थी!सभी हैरान -परेशान थे।किसी का भी दिमाग काम नहीं कर रहा था।तभी मेरी माँ के दिमाग में कुछ कौंधा।उसने सबको नचनियाँ से दूर हटने को कहा।नचनियाँ जमीन पर पड़ा जोर -जोर से सांसें ले रहा था।उसके गले से घुर्र -घुर्र की आवाजें निकल रही थीं।आंखें खून से भरी लग रही थीं।माँ नचनियाँ के पास घुटनों के बल बैठ गई और हाथ जोड़कर बोली---आप कौन है?


माँ ने जब यह पूछा कि आप कौन हैं तो नचनियाँ ठठाकर हँस पड़ा।माँ को प्यार से देखते हुए बोला--तुम बहुत संझदार हो।तुमने कितनी आसानी से समझ लिया कि इस नचनियाँ के शरीर में कोई रूहानी ताकत है।


माँ ने अपने हाथ जोड़े हुए ही कहा कि कृपया आप अपना परिचय दीजिए और बताइए कि आपने इसे क्यों पकड़ा है?


--ये बड़ा घमंडी है गाना अच्छा गाता है।मैंने इससे गाना सुनाने को कहा था तो ऐंठ दिखाने लगा।उल्टे मुझे गाली भी दी।अब इसे नहीं छोड़ूँगा।अपने साथ ले जाऊंगा।


माँ ने नम्रता से कहा--इसे छोड़ दीजिए।नादान है गलती हो गई।आपको जो भी चढ़ावा लेना हो,ले लीजिएगा।


--तुम इतना कह रही हो तो छोड़ देता हूँ। इसे कह देना कि औघड़ बाबा के मजार के पास वाले बरगद के नीचे मेरे लिए चढ़ावा चढ़ा दे।मुर्गा और देसी दारू।


'ठीक है बाबा,आपकी बड़ी कृपा'--माँ के इतना कहते ही नचनियाँ तड़पने लगा जैसे उसके शरीर से कुछ निकल रहा हो।थोड़ी देर तड़प कर वह शांत हो गया।कुछ देर बाद नचनियाँ ने आंखें खोल दी और अपने को लोगों से घिरा देखकर भौचक्का हो गया।और फिर उठकर बैठ गया।माँ ने उससे पूछा --तुम्हें पता है कि तुम्हें क्या हुआ था?तुम्हें किसी औघड़ बाबा ने पकड़ लिया था।तुम औघड़ बाबा वाले मजार के पास गए थे क्या!


'हाँ, कल रात मैं उस तरफ़ से गुजरा था।'


-फिर क्या हुआ था,विस्तार से बताओ--माँ उत्सुक थी।सारे मजदूर,मिस्त्री के साथ मैं भी उसकी कहानी जानने को बेचैन थी।


नचनियाँ ने कल रात की घटना के बारे में विस्तार से बताना शुरू किया-नचनियाँ को कल शहर से अपने गाँव लौटते काफी रात हो गई थी।वह पैदल ही चला जा रहा था।शहर से उसका गांव लगभग दस पंद्रह किलोमीटर दूर था।रास्ते में औघड़ बाबा की मजार पड़ती थी। जिसके बारे में कई डरावनी कहानियां प्रचलित थीं।ठंड बहुत ज्यादा थी और दूरी भी।वह गाना गाते हुए चला जा रहा था ताकि ठंड और डर दोनों पर काबू पा सके।


रास्ते में जब मजार पड़ा तो उसने उस तरफ नहीं देखा और अपने कदम तेज़ कर दिए।वह और तेज स्वर में गा रहा था।तभी किसी ने उसे उसके नाम से पुकारा।वह चौंककर रूक गया।मज़ार के सामने वाली सड़क के किनारे बरगद के पेड़ के पास एक औघड़ खड़ा था।गले में कौड़ियों की माला,कंधे पर लाल झोला,सिर पर लम्बी उलझी जटाएं,देह पर ढीला-ढाला काला चोंगा।हाथ में चिलम आंखें अंगारे की तरह लाल।


"बच्चा तुम बहुत अच्छा गाते हो।आओ ,यहाँ चबूतरे पर बैठो और मुझे भी गाना सुनाओ।"औधड़ ने बड़े प्यार से कहा।


--बाबा,बहुत देर हो गई है घर लौटने में।कल सुना दूंगा।


नचनियाँ ने विनम्रता से कहा।


"साले,नहीं सुनाओगे?"औघड़ अब गुस्से में था।


-बाबा,गाली मत दो। नचनियाँ को भी गुस्सा आ गया।


"क्यों नहीं दूँ साले,बड़ा नचनियाँ बनता है?मुझे मना करता है।"


--तुम हो साले,मैं नौकर हूँ तुम्हारा!जाओ नहीं सुनाता।जो उखाड़ना हो उखाड़ लो।


कहकर नचनियाँ आगे बढ़ने लगा।कुछ कदम चलने के बाद उसने मुड़कर देखा तो वहां औघड़ नहीं था।वह डर गया और किसी -किसी तरह घर पहुँचा था।उसे अपनी तबियत बहुत खराब लग रही थी।सुबह होते ही वह काम पर आ गया था।


"तुमने जब मुड़कर देखा,तभी औघड़ बाबा ने तुम्हें पकड़ लिया था।बड़ी मुश्किल से तुम्हारी जान बख्शी है उन्होंने।अब जाकर उन्हें चढावा चढ़ा देना और उनसे माफ़ी मांग लेना।"


-माँ ने नचनियाँ को सुझाव दिया।नचनियां ने मां की बात मान ली।उसने न केवल बरगद के पेड़ के नीचे वाले चबूतरे पर चढ़ावा चढ़ाया बल्कि वहां बैठकर के गाना भी गाया। फिर उसे कोई परेशानी नहीं हुई।


बताते हैं उस वीराने के बरगद के पास ही औघड़ बाबा अपना झोपड़ा डालकर रहते थे।एक दिन वे एक सड़क हादसे का शिकार हो गए।उनके श्रद्धालुओं ने बरगद के किनारे ही उनकी मज़ार बना दी। बरगद के चारों तरफ चबूतरा बनवा दिया। लोग वहाँ चढ़ावा चढ़ा जाते थे।मान्यता थी कि जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है उसे औघड़ बाबा उठा ले जाते हैं।वर्ष में दो बार वहाँ मेला भी लगता था,जिसमें लोग जादू -टोने भूत -प्रेत ग्रस्त लोगों को लेकर आते थे।कई फकीर और ओझा भी आते थे और पूरे दिन झाड़-फूंक का काम होता था।एक बार उत्सुकतावश मैं भी अपने दोस्तों के साथ वहाँ पहुँच गई,पर सड़क से ही भीतर


का दृश्य देखकर दहल गई।भूतग्रस्तों में कोई अपना ही सिर पीट रहा है तो कोई उछल- उछलकर गिर रहा है। कहीं आग में मिर्ची डालकर भूत भगाने का कार्य किया जा रहा है।तो कहीं झाड़ू से चुड़ैल खदेड़ी जा रही है।चारों तरफ हाय -तौबा,चीख-पुकार मची है।


क्या सचमुच भूत -प्रेत ,जादू -टोना सच है या फिर यह सिर्फ मन की उपज है?हो सकता है मनोरोगी ही ऊपरी बाधा से ग्रस्त दिखाई देते हों।शरीर तो मरने के बाद पंच तत्वों में विलीन हो जाता है फिर वह कैसे भूत -प्रेत के रूप में सामने आ सकता है?कैसे मरने के बाद किसी में इतनी शक्ति आ सकती है कि वह कई पहलवानों को भी पछाड़ दे?कई प्रश्न थे पर उनका उत्तर आसान नहीं था।इस बारे में मेरे सभी दोस्तों की अपनी -अपनी राय थी।सबके अपने -अपने अनुभव थे ।अपना -अपना विश्वास था।अपने-अपने तर्क थे और देखी -सुनी,अनुभव की गई कहानियां थीं।हम सभी अपने अवकाश के समय उन कहानियों का साझा करते थे।


आज सभी औघड़ बाबा के मज़ार तक आए थे और वहाँ का दृश्य देखकर कांप रहे थे। तभी अचानक एक भयानक कोहराम मचा। सभी पूजा -पद्धतियां रूक गईं।चुड़ैल -ग्रस्त औरतों ने अपने खुले बाल झटकने बंद कर दिए।ओझा के लाल मिर्चों का हवन रूक गया।भूत -प्रेत के शिकार लोग भी उसी दिशा में देखने लगे।कुछ लोग एक भिखारी को पीट रहे थे।दुबला -पतला, मैला -कुचैला भिखारी था।आखिर क्या अपराध किया था उसने?भिखारी की हालत बहुत खराब थी।लगता था कि अब वह मर ही जाएगा।मेरे दोस्त अनिकेत ने आगे बढ़कर लोगों को ललकारा -क्यों मार रहे हो इसे?यह मर जाएगा।


--अबे हट!बित्ते भर का लौंडा!चल भाग यहाँ से!


उनमें से एक पहलवान टाइप आदमी ने कहा।


"जानते नहीं मेरे पिताजी दरोगा हैं।अभी उन्हें फोन करता हूँ।तब पता चलेगा।"-अनिकेत ने भी अकड़ दिखाई।


दरोगा का नाम सुनते ही उन लोगों ने भिखारी को मारना बंद कर दिया और सबसे कहने लगे--यह भिखारी औघड़ बाबा का चढ़ावा उठा ले जाता है।रात को मज़ार के पीछे की टूटी हुई झोपड़ी में ही रहता है।यह जीवित प्रेत है इसे मार देना गलत नहीं है।रात को यही चिलम जलाकर पीता है,जिसे दूर से लोग औघड़ बाबा की रूह समझते हैं।


अचानक सभी की नज़र ज़मीन पर पड़े भिखारी पर गई।वहाँ कोई नहीं था